Sumitranandan pant biography in hindi pdf
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प्रसाद तथा निराला की भांति सुमित्रानंदन पंत भी छायावाद के आधार-स्तंभ हैं। छायावाद अपने पूरे सौन्दर्य और समृद्धि के साथ पन्त जी के काव्य में प्रकट हुआ है। ये प्रकृति के सुन्दर, सजीव, मनोरम दृश्य अंकित करने में सिद्धहस्त हैं; अतः इन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है। और इनके काव्य-यात्रा के स्पष्टतः तीन सोपान माने जाते हैं, तो चलिए आज के इस आर्टिकल के माध्यम से हम आपको सुमित्रानन्दन पन्त जी के बारे में संपूर्ण जानकारी देंगे, ताकि आप परीक्षाओं में ज्यादा अंक प्राप्त कर सकें।
तो दोस्तों, आज के इस लेख में हमने सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय (Sumitranandan Pant memoirs in Hindi) के बारे में बताया है। इसमें हमने सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय भाव पक्ष कला पक्ष, साहित्यिक परिचय, रचनाएं एवं कृतियां, भाषा शैली, काव्यगत विशेषताएं, पुरस्कार एवं हिंदी साहित्य में स्थान और सुमित्रानन्दन पन्त जी के तीनों सोपानों को भी विस्तार पूर्वक सरल भाषा में समझाया है।
इसके अलावा, इसमें हमने सुमित्रानंदन पंत जी के जीवन से जुड़े उन सभी प्रश्नों के उत्तर दिए हैं जो अक्सर परीक्षाओं में पूछे जाते हैं। यदि आप भी पन्त जी के जीवन से जुड़े उन सभी प्रश्नों के उत्तर के बारे में जानना चाहते हैं तो आप इस आर्टिकल को अंत तक अवश्य पढ़ें।
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सुमित्रानंदन पंत का संक्षिप्त परिचय
विद्यार्थी ध्यान दें कि इसमें हमने पन्त जी की जीवनी के बारे में संक्षेप में एक सारणी के माध्यम से समझाया है।
सुमित्रानंदन पंत की जीवनी
पूरा नाम | सुमित्रानन्दन पन्त |
असली नाम | गोसाईदत्त |
जन्म तिथि | 20 मई, ई.
में |
जन्म स्थान | उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक ग्राम में |
मृत्यु तिथि | 28 दिसम्बर, ई. में |
मृत्यु स्थान | इलाहाबाद (प्रयागराज), उत्तर प्रदेश में |
पिता का नाम | श्री गंगादत्त पन्त |
माता का नाम | श्रीमती सरस्वती देवी |
पैशा | लेखक, कवि, समाज विचारक |
लेखन विधा | काव्य और गद्य |
साहित्य काल | आधुनिक काल (छायावादी युग) |
आंदोलन | प्रगतिवादी कवि |
भाषा | सरल, सहज, परिमार्जित खड़ीबोली |
शैली | चित्रमय, संगीतात्मक, मुक्तक शैली |
प्रमुख रचनाएं | वीणा, ग्रन्थि, पल्लव, गुंजन, ग्राम्या, चिदम्बरा, लोकायतन, युगान्त, युगवाणी, कला और बूढ़ा चांद आदि। |
पुरस्कार | पद्मभूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार आदि। |
साहित्य में स्थान | छायावाद के आधार स्तम्भ, प्रकृति सुकुमार कवि और अध्यात्म प्रधान कविता के कवि के रूप में पन्त जी का हिंदी साहित्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। |
प्रस्तावना— प्रकृति के सुकुमार कवि कहलाने वाले, गम्भीर विचारक, मानवतावादी कवि सुमित्रानंदन पंत () हिन्दी साहित्य में अपनी सुकुमार भावनाओं और कोमल कल्पनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं, छायावाद के ये प्रमुख कवि हैं, प्रगतिवाद के ये समर्थक हैं और हिन्दी साहित्य के ये गौरव हैं।
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सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय
जीवन-परिचय— सुकुमार भावनाओं के कवि और प्रकृति के चतुर-चितेरे श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी का जन्म 20 मई, सन् ईस्वी (संवत् वि०) को प्रकृति की सुरम्य गोद में अल्मोड़ा के निकट कौसानी नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम पं० गंगादत्त पन्त तथा माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। इनके जन्म के छः घण्टे के बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया था; अतः इनका पालन-पोषण पिता और दादी के वात्सल्य की छाया में हुआ।
सुमित्रानंदन पंत जी ने अपनी शिक्षा का प्रारम्भिक चरण अल्मोड़ा में पूरा किया। यहीं पर इन्होंने अपना नाम गुसाईंदत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन रखा। इसके बाद वाराणसी के जयनारायण हाईस्कूल से स्कूल-लीविंग की परीक्षा उत्तीर्ण की और जुलाई, ई० में इलाहाबाद आये और म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। सन् ई० में महात्मा गांधी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर इन्होंने बी०ए० की परीक्षा दिये बिना ही कॉलेज त्याग दिया था। इन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला और हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। प्रकृति की गोद में पलने के कारण इन्होंने अपनी सुकुमार भावना को प्रकृति के चित्रण में व्यक्त किया।
सुमित्रानंदन पंत जी ने प्रगतिशील विचारों की पत्रिका रूपाभा का प्रकाशन किया। सन् ई० में भारत छोड़ो आन्दोलन से प्रेरित होकर लोकायन नामक सांस्कृतिक पीठ की स्थापना की और भारत भ्रमण हेतु निकल पड़े। सन् ई० में ये ऑल इण्डिया रेडियो के परामर्शदाता पद पर नियुक्त हुए और सन् ई० में भारत सरकार ने इनकी साहित्य-सेवाओं को पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया। इनकी कृति चिदम्बरा पर इनको भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। 28 दिसम्बर, सन् ईस्वी (संवत् वि०) को इस महान् साहित्यकार ने इस भौतिक संसार से सदैव के लिए विदा ले ली और चिरनिद्रा में लीन हो गये।
सुमित्रानंदन पंत का साहित्यिक परिचय
साहित्यिक-सेवाएँ— पन्त जी गम्भीर विचारक, उत्कृष्ट कवि और मानवता के प्रति आस्थावान एक ऐसे सहज कुशल शिल्पी थे, जिन्होंने नवीन सृष्टि के अभ्युदय के नवस्वप्नों की सर्जना की। इन्होंने सौन्दर्य को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है, इसीलिए इन्हें सौन्दर्य का कवि भी कहा जाता है।
सुमित्रानन्दन पन्त जी छायावादी युग के चार स्तम्भों में से एक थे। सात वर्ष की अल्पायु से ही इन्होंने कविताएँ लिखनी प्रारम्भ कर दी थीं। सन् ई० में इन्होंने गिरजे का घण्टा नामक सर्वप्रथम रचना लिखी। सन् ई० में इनकी रचनाएँ उच्छ्वास और ग्रन्थि में प्रकाशित हुईं। इसके उपरान्त सन् ई० में इनके वीणा और पल्लव नामक दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। इन्होंने रूपाभ नामक एक प्रगतिशील विचारोंवाले पत्र का सम्पादन भी किया। पन्तजी सौन्दर्य के उपासक थे। प्रकृति, नारी और कलात्मक सौन्दर्य इनकी सौन्दर्यानुभूति के तीन मुख्य केन्द्र रहे। इनके काव्य-जीवन का आरम्भ प्रकृति-चित्रण से हुआ। इनके प्रकृति एवं मानवीय भावों के चित्रण में कल्पना एवं भावों की सुकुमार कोमलता के दर्शन होते हैं। इसी कारण इन्हें प्रकृति का सुकुमार एवं कोमल भावनाओं से युक्त कवि कहा जाता है।
सुमित्रानंदन पंत जी को कला और बूढ़ा चाँद कृति पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, लोकायतन पर सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार और चिदम्बरा पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। तथा भारत सरकार ने भी इन्हें पद्मभूषण की उपाधि से विभूषित किया था।
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सुमित्रानंदन पंत की प्रमुख रचनाएं
कृतियाँ एवं रचनाएँ- पन्त जी की प्रमुख कृतियों का विवरण निम्नलिखित हैं—
(1) वीणा, (2) ग्रन्थि, (3) पल्लव (इसमें वसन्तश्री, परिवर्तन, मौन-निमन्त्रण, बादल आदि श्रेष्ठ कविताएँ संकलित है।), (4) गुंजन (नौका- विहार इस संकलन की श्रेष्ठ कविता है।), (5) युगान्त, (6) युगवाणी, (7) स्वर्णधूलि, (8) ग्राम्या, (9) उत्तरा, (10) स्वर्ण किरण, (11) पुरुषोत्तम राम, (12) पतझर, (13) गीत हंस, (14) गीत पर्व युग पथ, (15) कला और बूढ़ा चाँद, (16) चिदम्बरा, (17) लोकायतन, (18) शिल्पी, (19) पल्लविनी, (20) अतिमा, (21) युगपथ, (22) ऋता आदि।
पन्त जी की अन्य रचनाएँ हैं—
नीति-नाट्य ज्योत्स्ना, रजतशिखर, अतिमा आदि।
उपन्यास हार।
कहानी-संग्रह पाँच कहानियाँ ।
उमर खय्याम की रुवाइयों का अनुवाद मधुज्वाल ।
सुमित्रानंदन पंत जी के तीन सोपान
पंत-सोपान—पन्त जी ने अनेक काव्यग्रन्थ लिखे हैं। कविताओं के अतिरिक्त इन्होंने कहानियाँ, उपन्यास और नाटक भी लिखे हैं, किन्तु कवि रूप में ये अधिक प्रसिद्ध हैं। पन्त जी के कवि रूप के विकास के तीन सोपान हैं— (1) छायावाद और मानवतावाद, (2) प्रगतिवाद या मार्क्सवाद तथा (3) नवचेतनावाद।
1 पन्त जी के विकास के प्रथम सोपान (जिसमें छायावादी प्रवृत्ति प्रमुख थी) की सूचक रचनाएँ हैं— वीणा, ग्रन्थि, पल्लव और गुंजन। वीणा में प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति कवि का अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। ग्रन्थि से वह प्रेम की भूमिका में प्रवेश करता है और नारी-सौन्दर्य उसे आकृष्ट करने लगता है। पल्लव छायावादी पन्त का चरमबिन्दु है। अब तक कवि अपने ही सुख-दुःख में केन्द्रित था, किन्तु गुंजन से वह अपने में ही केन्द्रित न रहकर विस्तृत मानव-जीवन (मानवतावाद) की ओर उन्मुख होता है।
2 द्वितीय सोपान के अन्तर्गत तीन रचनाएँ आती हैं— युगान्त, युगवाणी और ग्राम्या। इस काल में कवि पहले गाँधीवाद और बाद में मार्क्सवाद से प्रभावित होकर फिर प्रगतिवादी बन जाता है।
3 मार्क्सवाद की भौतिक स्थूलता पन्त जी के मूल संस्कारी कोमल स्वभाव के विपरीत थी। इस कारण वह तृतीय सोपान में वे पुनः अन्तर्जगत् की ओर मुड़े। इस काल की प्रमुख रचनाएँ हैं— स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, उत्तरा, अतिमा, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, किरण, पतझर – एक भाव क्रान्ति और गीतहंस। इस काल में कवि पहले विवेकानन्द और रामतीर्थ से तथा बाद में अरविन्द-दर्शन से प्रभावित होता है।
सन् ई० के बाद की सुमित्रानंदन पंत जी की कुछ रचनाओं (कौए, मेंढक आदि) पर प्रयोगवादी कविता का प्रभाव है, पर कवि का यह रूप भी सहज न होने से वह इसे भी छोड़कर अपने प्राकृत (वास्तविक) रूप पर लौट आया।
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सुमित्रानंदन पंत की काव्यगत विशेषताएं
काव्यगत-विशेषताएँ— पन्त जी के काव्य में मानवता के प्रति सहज आस्था है। ये एक नवीन, सुन्दर, सुखी समाज की सृष्टि के प्रति आशावान हैं। विश्व-बन्धुत्व और भ्रातृत्व के प्रति यह आशावादी स्तर ही इनके काव्य को उदात्त बनाता है। काव्य-कला के प्रति पन्त जी विशेष सचेष्ट हैं। इनकी भाषा चित्रमयी एवं अलंकृत है तथा स्पष्ट, सशक्त बिम्ब- योजना ने उसे अत्यन्त प्रभावमयी बना दिया है। संक्षेप में सुन्दर, सुकुमार भावों के चतुर-चितेरे पन्त जी ने खड़ीबोली को ब्रजभाषा जैसा माधुर्य एवं सरसता प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। पन्त जी गम्भीर विचारक, उत्कृष्ट कवि और मानवता के सहज एवं आस्थावान शिल्पी थे।
सुमित्रानन्दन पन्त जी के काव्य की भावगत तथा कलागत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
भाव पक्ष
सुमित्रानंदन पंत के काव्य का भाव पक्ष— बंगला और अंग्रेजी के अनेक कवियों और विचारकों के प्रभाव के कारण पन्त जी के काव्य में अनेक ऐसी विशेषताएँ आ गयी हैं जो इन्हें अन्य कवियों से अलग करती हैं। पन्त जी के वर्ण्य विषयों को तीन सोपानों में देखा जा सकता है- छायावाद, प्रगति-प्रयोगवाद तथा शुद्ध दार्शनिक सोपान। श्री अरविन्द के दर्शन से प्रभावित होने के पश्चात् की अन्तश्चेतनावादी, आध्यात्मिक कविताओं में उनके सच्चे मानवतावादी रूप के दर्शन होते हैं।
सुमित्रानन्दन पन्त जी के कवि हृदय पर प्रकृति के कोमल रूप का विशद रूप से प्रभाव पड़ा है। ये द्रुमों की छाया को छोड़कर किसी बाला के बाल-जाल में लोचनों को उलझाने की अभिलाषा नहीं रखते—
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
अतिशय कल्पना, प्रकृति-प्रेम, श्रृंगार भावना, सौन्दर्य निरूपण, नारी चित्रण, रहस्यात्मकता, लाक्षणिक विधान, पलायनवादी भावना और मुक्तता आदि छायावादी विशेषताएँ पन्त जी के काव्य में विद्यमान हैं। वियोग की वेदना छायावादी काव्य की आत्मा थी। तभी तो पन्त जी ने कहा था—
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।
विश्वबन्धुत्व और भ्रातृत्व के प्रति पन्त जी का स्वर आशावादी है।
कला पक्ष (भाषा शैली)
सुमित्रानंदन पंत के काव्य का कला पक्ष— पन्त जी की भाषा खड़ी बोली का कोमलतम रूप है। पन्त जी की शैली संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी के कवियों से प्रभावित होकर गीतात्मक मुक्तक शैली है जिसमें माधुर्य, सरसता, ध्वन्यात्मता, संगीतात्मकता और व्यंजना शक्ति की प्रधानता है। इन्होंने रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, स्मरण, विरोधाभास आदि सभी अलंकारों का अपने काव्य में प्रयोग किया है। उपमा अलंकार का एक उदाहरण देखिए—
छोटे-तारों से छितरे फूलों के छींटे,
झागों से लिपटे लहरी श्यामल लतरों पर।
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से।।
इनकी रचनाओं में तुकान्त, अतुकान्त, स्वच्छन्द और मुक्तक सभी प्रकार के छन्द पाये जाते हैं। श्रृंगार के दोनों पक्षों के अतिरिक्त अन्य सभी रसों का प्रयोग भी इनके काव्य में है।
सुमित्रानंदन पंत के पुरस्कार
सन् ई० में पंत जी ऑल इण्डिया रेडियो के परामर्शदाता पद पर नियुक्त हुए और सन् ई० तक इससे सम्बद्ध रहे। इन्हें कला और बूढ़ा चाँद नामक काव्य-ग्रन्थ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, लोकायतन पर सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार और चिदम्बरा पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। भारत सरकार ने पन्त जी को पद्मभूषण की उपाधि से विभूषित किया।
सुमित्रानंदन पंत का साहित्य में स्थान
साहित्य में स्थान— छायावाद के आधार स्तम्भ, प्रकृति सुकुमार कवि और अध्यात्म प्रधान कविता के कवि के रूप में पन्त जी का स्थान हिन्दी साहित्य में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सुन्दर, सुकुमार भावों के चतुर-चितेरे पन्त जी ने खड़ी बोली को ब्रजभाषा जैसा माधुर्य एवं सरसता प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। पन्त जी गम्भीर विचारक, उत्कृष्ट कवि और मानवता के सहज आस्थावान् कुशल शिल्पी हैं, जिन्होंने नवीने सृष्टि के अभ्युदय की कल्पना की है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है- “पन्त जी हिन्दी कविता के श्रृंगार हैं, जिन्हें पाकर माँ भारती कृतार्थ हुई।
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सुमित्रानंदन पंत की कविताएं
परिवर्तन
[सुमित्रानन्दन पन्त जी ने इस कविता में अपना यह मत स्थिर किया है कि परिवर्तन ही जीवन है और निश्चेष्ट शान्ति मरण है। जीवन की अस्थिरता के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट करते हुए कवि ने बताया है कि इस जगह में प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु नाशवान् है।]
(1) कहाँ आज वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत छवि जाल, ज्योति-चुंबित जगती का भाल?
राशि-राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार, धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत् श्रृंगार, (स्वर्ण भृंगों के गंध विहार)
गूँज उठते थे बारंबार, सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न सुन्दरता थी सुकुमार, ऋद्धि और सिद्धि अपार!
अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद विख्यात?
दुरित, दुरित, दुख दैन्य न थे जब ज्ञात, अपरिचित जरा-मरण भ्रू-पात ।
(2) हाय!
सब मिथ्या बात! आज तो सौरभ का मधुमास शिशिर में भरता सूनी सांस !
वही मधुऋतु की गुंजित डाल झुकी थी जो यौवन के भार,
अकिंचनता में निज तत्काल सिहर उठती, जीवन है भार!
आज पावस नद के उद्गार काल के बनते चिह्न कराल,
प्रात का सोने का संसार, जला देती संध्या की ज्वाल !
अखिल यौवन के रंग उभार हड्डियों के हिलते कंकाल, कचों के चिकने, कालव्याल केंचुली, काँस, सिदार, गूँजते हैं सबके दिन चार, सभी फिर हाहाकार !
(3) आज बचपन का कोमल गात जरा का पीला पात!
चार दिन सुखद चाँदनी रात और फिर अंधकार, अज्ञात!
शिशिर-सा झर नयनों का नीर झुलस देता गालों के फूल!
प्रणय का चुम्बन छोड़ अधीर अधर जाते अधरों को भूल!
मृदुल- होठों का हिमजल हास उड़ा जाता निःश्वास समीर,
सरल भौंहों का शरदाकाश घेर लेते घन, घिर गंभीर!
शून्य साँसों का विधुर वियोग छुड़ाता अधर मधुर संयोग,
मिलन के पल केवल दो चार, विरह के कल्प अपार!
अरे, वे अपलक चार नयन आठ आँसू रोते निरुपाय,
उठे रोओं के आलिंगन कसक उठते काँटों से हाय!
(4) किसी को सोने के सुख साज मिल गया यदि ऋण भी कुछ आज,
चुका लेता दुख कल ही ब्याज काल को नहीं किसी की लाज!
विपुल मणि रत्नों का छविजाल, इंद्रधनु की सी छटा विशाल-
विभव की विद्युत ज्वाल चमक, छिप जाती है तत्काल,
मोतियों जड़ी ओस की डार हिला जाता चुपचाप बयार!
(5) खोलता इधर जन्म लोचन मूँदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण,
अभी उत्सव औ हास हुलास, अभी अवसाद, अश्रु- उच्छ्वास!
अचिरता देख जगत् की आप शून्य भरता समीर निःश्वास, डालता पातों पर चुपचाप ओस के आँसू नीलाकाश, सिसक उठता समुद्र का मन, सिहर उठते उडुगन!
(6) अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही तांडव नर्तन विश्व का करुण विवर्तन! तुम्हारा ही नयनोन्मीलन, निखिल उत्थान, पतन! अहे वासुकि सहस्रफन!
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरन्तर छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षःस्थल पर !
शत शत फेनोच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पांतर अखिल विश्व ही विवर, वक्र कुण्डल दिङ्मंडल !
(पल्लव से)
चींटी
चीटी की देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा तम के तागे-सी जो हिल-डुल चलती लघुपद पल-पल मिल-जुल वह है पिपीलिका पाँति!
देखो ना, किस भाँति काम करती वह संतत!
कन-कन कनके चुनती अविरत!
गाय चराती, धूप खिलाती, बच्चों की निगरानी करती,
लड़ती, अरि से तनिक न डरती दल के दल सेना सँवारती,
घर, आँगन, जनपथ बुहारती!
चींटी है प्राणी सामाजिक, वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
Ruby bridges autobiography pressure a faceभूरे बालों की सी कतरन,
छिपा नहीं उसका छोटापन वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर विचरण करती, श्रम में तन्मय, वह जीवन की चिनगी-अक्षय॥
वह भी क्या देही है, तिल-सी? प्राणों की रिलमिल झिलमिल सी! दिन भर में वह मीलों चलती, अथक्, कार्य से कभी न टलती!
(युगवाणी से)
बापू के प्रति
[बापू के महामानवत्व को प्रस्तुत पंक्तियों में नमन किया गया है।]
तुम माँसहीन, तुम रक्तहीन हे अस्थिशेष!
तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुराण ! हे चिर नवीन !
तुम पूर्ण इकाई जीवन की, जिसमें असार भव- शून्य लीन,
आधार अमर, होगी जिस पर भावी की संस्कृति समासीन।
तुम मांस, तुम्हीं हो रक्त अस्थि- निर्मित जिनसे नवयुग का तन,
तुम धन्य! तुम्हारा निःस्व त्याग है विश्व भोग का वर साधन, इस भस्म काम तन की रज से जग पूर्ण काम नव जगजीवन,
बीनेगा सत्य-अहिंसा के ताने-बानों से मानवपन!
सुख भोग खोजने आते सब, आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन, तुम आत्मा के मन के मनोज!
जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर चेतना, अहिंसा, नम्र ओज,
पशुता का पंकज बना दिया तुमने मानवता का सरोज!
पशु-बल की कारा से जग को दिखलाई आत्मा विद्वेष घृणा की विमुक्ति, से लड़ने को सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति,
वर श्रम प्रसूति से की कृतार्थ तुमने विचार परिणीत उक्ति विश्वानुरक्त हे अनासक्त!
सर्वस्व त्याग को बना मुक्ति !
उरके चरखे में कात सूक्ष्म युग-युग का विषय-जनित विषाद,
गुंजित कर दिया गगन जग का भर तुमने आत्मा का निनाद। रँग-रंग खद्दर के सूत्रों में, नव जीवन आशा, स्पृहाह्लाद,
मानवी कला के सूत्रधार ! हर लिया यन्त्र कौशल प्रवाद! साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी मानवता, पशु-बलाक्रान्त,
श्रृंखला-दासता, प्रहरी बहु निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त,
कारागृह में दे दिव्य जन्म मानव आत्मा को मुक्त, कान्त,
जन-शोषण की बढ़ती यमुना तुमने की नत, पद-प्रणत शान्त!
कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति बहु धर्म-जाति-गति रूप-नाम,
बन्दी जग-जीवन, भू विभक्त विज्ञान- मूढ़ जन प्रकृति- काम,
आये तुम मुक्त पुरुष कहने-मिथ्या जड़ बन्धन, सत्य राम,
नानृतं जयति सत्यं मा भै, जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!
(युगान्त से)
चन्द्रलोक में प्रथम बार
चन्द्रलोक में प्रथम बार, मानव ने किया पदार्पण,
छिन्न हुए लो, देशकाल के, दुर्जय बाधा बंधन।
दिग्विजयी मनु-सुत, निश्चय, यह महत् ऐतिहासिक-क्षण
भू-विरोध हो शांत निकट आएँ सब देशों के जन।
युग-युग का पौराणिक स्वप्न हुआ मानव का संभव,
समारंभ शुभ नए चन्द्रयुग का भू को दे गौरव!
फहराए ग्रह-उपग्रह में धरती का श्यामल अंचल,
सुख संपद् संपन्न जगत् में बरसे जीवन-मंगल!
अमरीका सोवियत बनें नव दिक् रचना के वाहन
जीवन पद्धतियों के भेद समन्वित हों-विस्तृत मन!
अणु-युग बने धरा जीवन-हित स्वर्ग सृजन का साधन,
मानवता ही विश्व सत्य भू-राष्ट्र करे आत्मार्पण।
धरा चन्द्र की प्रीति परस्पर जगत प्रसिद्ध, पुरातन,
हृदय सिंधु में उठता स्वर्गिक ज्वार देख चन्द्रानन!
(ऋता से)
नौका-विहार
[प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत जी ने प्रस्तुत कविता में मानवीकरण अलंकार के माध्यम से शीतल शुभ्र चाँदनी रात में गंगा नदी की अनुपम शोभा का चित्राङ्कन किया है। कवि ने प्रसंगानुकूल को शब्दावली का प्रयोग किया है। कविता के अन्त में कवि की दार्शनिकता उल्लेखनीय है।]
शान्त, स्निग्ध ज्योत्स्ना उज्ज्वल अपलक अनंत नीरव भूतल!
सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी-गंगा, ग्रीष्म विरल,
लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस बाला गंगा निर्मल, शशिमुख से दीपित मृदु करतल,
लहरे उर पर कोमल कुन्तल!
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलाम्बर!
साड़ी की सिकुड़न सी जिस पर, शशि की रेशमी विभा से भर सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर!
चाँदनी रात का प्रथम प्रहर, हम चले नाव लेकर सत्वर ।
सिकता की सस्मित सीपी पर मोती की ज्योत्स्ना रही विचर
लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर!
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर,
तिर रही खोल पालों के पर!
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर!
कालाकॉकर का राजभवन सोया जल में निश्चिन्त, प्रमन
पलकों पर वैभव-स्वप्न सघन!
नौका से उठतीं जल हिलोर, हिल पड़ते नभ के ओर-छोर !
विस्फारित नयनों से निश्चल कुछ खोज रहे चल तारक दल ज्योतित कर नभ का अंतस्तल
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किए अविरल
फिरती लहरें लुक-छिप पल-पल!
सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी-सी जल में कल, रुपहले कचों में हो ओझल!
लहरों के घूँघट से झुक-झुक दशमी का शशि निज तिर्यक्- मुख
दिखलाता मुग्धा-सा रुक-रुक।
जब पहुँची चपला बीच धार, छिप गया चाँदनी का कगार!
दो बाहों से दूरस्थ तीर धारा का कृश-कोमल-शरीर
आलिंगन करने को अधीर!
अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल लगती भ्रू-रेखा सी अराल,
अपलक नभ नील-नयन विशाल,
माँ के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,
उर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग?
क्या विकल कोक, उड़ता हरने निज विरह शोक?
छाया की कोकी को विलोक!
पतवार घुमा, अब प्रतनु भार नौका घूमी विपरीत धार।
डाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार
बिखराती जल में तार-हार!
चाँदी के साँपों-सी रलमल नाचती रश्मियाँ जल में चल
रेखाओं-सी खिच तरल-सरल!
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
फैले फूले जल में फेनिल,
अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह।
हम बढ़े घाट को सहोत्साह!
ज्यों-ज्यों लगती नाव पार उर में आलोकित शत विचार।
इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत् इस जीवन का उद्गम, शाश्वत् है गति, शाश्वत् संगम!
शाश्वत् नभ का नीला विकास, शाश्वत् शशि का यह रजत हास, शाश्वत लघु-लहरों का विलास!
हे जग-जीवन के कर्णधार!
चिर जन्म-मरण के आरपार,
शाश्वत जीवन-नौका-बिहार!
मैं भूल गया अस्तित्व ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत् प्रमाण
करता मुझको अमरत्व दान!
(गुंजन से)
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FAQs. सुमित्रानंदन पंत जी के जीवन से जुड़े प्रश्न उत्तर
1.
सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय कैसे लिखें?
सुमित्रानंदन पंत का संक्षिप्त जीवन परिचय प्रकृति के अमर गायक कविवर सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म 20 मई, ई० को अल्मोड़ा के निकट कौसानी ग्राम में हुआ था। जन्म के 6 घण्टे पश्चात् ही इनकी माता का देहान्त हो गया और पिता तथा दादी के वात्सल्य की छाया में इनका प्रारम्भिक लालन-पालन हुआ। पन्तजी की उच्चशिक्षा का पहला चरण अल्मोड़ा में पूरा हुआ। यहीं पर इन्होंने अपना नाम गुसाईंदत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन रख लिया।
सन् ई० में पन्तजी अपने मँझले भाई के साथ बनारस चले आए। यहाँ पर इन्होंने क्वीन्स कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की। यहीं से इनका वास्तविक कविकर्म प्रारम्भ हुआ। काशी में पन्तजी का परिचय सरोजिनी नायडू तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर के काव्य के साथ-साथ अंग्रेजी की रोमाण्टिक कविता से हुआ और यहीं पर इन्होंने कविता प्रतियोगिता में भाग लेकर प्रशंसा प्राप्त की। सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित होने पर इनकी रचनाओं ने काव्य-मर्मज्ञों के हृदय में अपनी धाक जमा ली। सन् ई० में ये ‘ऑल इण्डिया रेडियो के परामर्शदाता के पद पर नियुक्त हुए और सन् ई० तक ये प्रत्यक्ष रूप से रेडियो से सम्बद्ध रहे।
सरस्वती के इस पुजारी ने 28 दिसम्बर, ई० को इस भौतिक संसार से सदैव के लिए विदा ले ली।
3.
सुमित्रानंदन पंत के महाकाव्य का नाम क्या है?
लोकायतन छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पन्त जी का महाकाव्य है। पन्त द्वारा रचित लोकायतन में भारतीय जीवन की स्वतंत्रता के पहले और बाद की कथा को काव्य रूप दिया गया है।
4. सुमित्रानंदन पंत की पहली रचना कौन सी थी?
सुमित्रानंदन पंत जी ने 7 वर्ष की अल्पायु से ही कविताएं लिखनी प्रारंभ कर दी थी। सन् ईस्वी में इन्होंने गिरजे का घण्टा नामक सर्वप्रथम रचना लिखी। सन् ईस्वी में इनकी रचनाएं उच्छ्वास और ग्रन्थि में प्रकाशित हुई। इसके उपरांत सन् ईस्वी में इनके वीणा और पल्लव नामक दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए।